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बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन से युवक को थैलसीमिया से मिली मुक्ति

नई दिल्ली, 4 मई (आईएएनएस)| बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में 25 साल के एक युवक का जोखिमपूर्ण बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन किया गया जो कि सफल रहा।

आम जिंदगी जीने और जानलेवा बीमारी थैलसीमिया मेजर से भावी पीढ़ी को बचाने के लिए यह निश्चित तौर पर इस बीमारी को हराने की जंग थी, जिसने दिल्ली के 25 वर्षीय निखिल बरवाल को दुर्लभ आनुवांशिक बीमारी से लड़ने और बेहद जोखिमपूर्ण ट्रांसप्लांट प्रक्रिया से गुजरने के लिए प्रेरित किया।

निखिल बचपन से ही थैलसीमिया मेजर (टीएम) से पीड़ित थे क्योंकि उनके माता-पिता को थैलसीमिया था। वह नियमित तौर पर ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराकर इस स्थिति को संभाला करते थे लेकिन शादी के बाद वह अपने भविष्य को लेकर चिंतित हो गए। अगली पीढ़ी में यह विकार जाने की संभावना उनके दिमाग से कभी भी नहीं हटती थी। उन्होंने इस स्थिति के इलाज के रूप में उपलब्ध विभिन्न विकल्पों को खोजना शुरू किया।

अपनी सकारात्मक जांचों के परिणामों से प्रोत्साहित होकर, उन्होंने बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में बेहद जोखिमपूर्ण बोन मैरो ट्रांसप्लांट कराने का फैसला किया और सफल ट्रांसप्लांट के बाद अब वह एक सामान्य-सक्रिय जिंदगी जी रहे हैं।

बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में विशेषज्ञों से मिले आरंभिक परामर्शो से निखिल जान गए कि वह न केवल अपनी इस स्थिति का इलाज करा सकते हैं बल्कि भावी पीढ़ी को भी आगे की यातनाओं से बचा सकते हैं। उन्हें यह सुझाया गया था कि बोन मैरो में पाई जाने वाली खास प्रकार की स्टेम सेल्स का ट्रांसप्लांटेशन थैलसीमिया मेजर से पीड़ित मरीज के लिए एकमात्र उपचारात्मक विकल्प रहा है। उन्होंने अंतत: इसके लिए कदम उठाया और नई जिंदगी हासिल की।

बीएलके सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल के बोन मैरो ट्रांसप्लांट विभाग के निदेशक एवं वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. धर्मा चौधरी ने कहा, मरीज की उम्र को देखते हुए यह निश्चित तौर पर काफी कम सफलता दर वाला एक बेहद चुनौतीपूर्ण केस था। लेकिन, हमें अपनी विशेषज्ञता पर भरोसा था और हमने यह चुनौती ली क्योंकि डोनर के रूप में उनके भाई का अच्छा मैच मिल गया था और अंतत: हम सफलतापूर्वक यह बोन मैरो ट्रांसप्लांट करने में सक्षम हुए।

उन्होंने कहा, ट्रांसप्लांट के बाद भी उन्हें ग्राफ्ट वर्सेस होस्ट डिसीज (जीडीएचडी) के साथ ही इम्यून सप्रेसेंट चिकित्सा के लिए व्यापक तौर पर मॉनीटरिंग पर रखा गया था। उन्हें पहले तीन महीने हर दो हफ्ते में ओपीडी में आकर जांच कराने के लिए कहा गया था और जिसे बाद में एक माह में एक बार कर दिया गया। आज वह इम्यून-सप्रेसेंट की जरूरत के बिना ट्रांसफ्यूजन से मुक्त एक आम जिंदगी जीते हैं।

निखिल जब मात्र छह माह के थे, तब उनमें थैलीसीमिया इंटरमीडिया (ट्रांसफ्यूजन निर्भर) का पता चला था। दो भाई-बहनों वाले निम्न मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले, निखिल का पहला ब्लड ट्रांसफ्यूजन 3.5 साल की उम्र में किया गया था। उनके बचने का रास्ता ट्रांसफ्यूजंस ही थे, इसलिए उन्हें बार-बार नियमित अंतराल में ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराने के लिए जाना पड़ता था। इसके अलावा, अगली पीढ़ी में यह बीमारी जाने का डर भी काफी बड़ा था।

निखिल के पिता रमेश बरवाल ने कहा, ट्रांसप्लांट ने हमारी जिंदगी बदल दी है। हमारे लिए यह एक नई शुरुआत है। मैं और मेरी पत्नी दोनों ही थैलसीमिया माइनर हैं। निखिल के जन्म के बाद, हमें पता चला कि वह मेजर है और हम उसकी स्थिति को लेकर काफी अवसाद में थे। निखिल की शादी के बाद हम उसकी भावी पीढ़ी को लेकर चिंतित रहने लगे थे। हमें इस बात का काफी डर था कि यह बीमारी उनमें भी जा सकती है। इसलिए, एक परिवार के तौर पर हमने बेहद जोखिमपूर्ण ट्रांसप्लांट कराने के निखिल के फैसले का पूरा समर्थन किया। हम बीएलके के विशेषज्ञों और खास तौर पर डॉ. धर्मा चौधरी और उनकी टीम के शुक्रगुजार हैं। आज, हम इस दुर्लभ आनुवांशिक बीमरी से लड़ने को लेकर अपने जीवन के अनुभव साझा करने के लिए यहां हैं।

डॉ. चौधरी ने कहा, थैलसीमिया मेजर एनीमिया की एक गंभीर अवस्था के रूप में दिखती है, जिसके लिए जीवन भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन और आयरन चिलेशन की जरूरत होती है। बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन (बीएमटी) इसका एकमात्र इलाज है लेकिन उपयुक्त एचएलए मैच्ड डोनर की अनुपलब्धता की वजह से जोखिम और ज्यादा खर्च बढ़ जाता है।

कई सर्वे और अध्ययन यह दर्शाते हैं कि दुनिया भर में थैलसीमिया का सबसे ज्यादा बोझ भारतीयों के कंधों पर ही है और भारत में 4 प्रतिशत लोग (बीटा) थैलसीमिया लक्षण के वाहक हैं। हर साल थैलसीमिया मेजर से पीड़ित लगभग 10,000-15,000 बच्चों का जन्म होता है।

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