लखनऊ। आज़ादी के परवानों के लिए स्वाधीनता संग्राम के समय बापू एक ऐसे महानायक बन चुके थे जिन्होंने अँग्रेज़ों को एक लाठी के दम पे धूल चटा दिया था। आज़ाद भारत के शूरवीरों में मोहनदास करमचंद गांधी का नाम सुनहरे अक्षरों में आज भी दर्ज है। एक ऐसे समय जब बापू के जन्म के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं, इस शहर का उनके साथ जो गहरा जुड़ाव है उसकी स्मृतियाँ आज भी शाने अवध अपने सीने में समेटे हुए है।
देश और दुनिया को शांति, सहिष्णुता और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बापू ने ना केवल लखनऊ को आज़ादी की लड़ाई के परिपेक्ष में पहचान दी बल्कि, कुछ ऐसी यादें दे गये जो आज भी बापू की अमर गाथा शहर के बाशिंदों को बयान करती हैं। 1916 वो साल था जब लखनऊ पैक्ट की नीव शहर में रखी गयी। ये वो साल था जब INC और मुस्लिम लीग दोनो एक ही मंच पर साथ खड़े थे। कॉंग्रेस के इतिहास में ये वो वक़्त था जब कॉंग्रेस के मॉडरेट और एक्सट्रीमिस्ट गुटों ने वापस हाथ मिला लिया था।
पर दुनिया एक अलग तरह का इतिहास बनते देख रही थी। ये वो समय था जब देश के दो स्तंभ माने जाने वाले गाँधी और नेहरू पहली बार मिलने वाले थे। वो एक मुलाकात, 26 दिसंबर 1916 को चारबाघ के रेलवे स्टेशन में इतिहास के पन्नों में एक अतरंगी दोस्ती बन गयी और देश को इसी जोड़ी ने आज़ादी का सुनेहरा सवेरा दिखाया।
वो बात अलग है की वो जगह जहाँ दोनो पहली बार मिले कई सालों तक जंगल बना रहा। फिर कुछ समाज में जागरूक लोगों ने मिलके उस जगह को जहाँ नेहरू और गाँधी मिले उसे एक नया जीवन दान दिया परंतु पार्किंग में दबे होने की वजह से उसे ज़्यादा लोग पहचान नही सकते। यहाँ तक की उसका इतिहास आज भी कई लोगों के लिए पहेली बना हुआ है। गाँधी अहमदाबाद से चले थे लखनऊ के लिए। वोहीं नेहरू अलाहाबाद से लखनऊ की ओर कूच किए थे। इकॉनोमिक्स और सिद्धांतों पर एक वक्तव्य मूर कॉलेज में देने के बाद गाँधी, एक पब्लिक मीटिंग करके लखनऊ आए। दिसंबर 26 और 27 को वो कॉंग्रेस के सेशन्स का हिस्सा बने।
गाँधी और नेहरू ने साथ काम भी किया दोनो दोस्त थे, संग्रामी थे, देश के नेता के रूप में भी उभरे और कभी कभी एक दूसरे की बात से इत्तेफ़ाक़ नही रखते थे पर लक्ष्य एक सुनहरे भारत का ही था। दोनों ने अपने अपने स्तर पर ऊँची उड़ान भरी। नेहरू देश के प्रधान मंत्री बने, वोहीं गाँधी जिन्हें साबरमती के संत भी कहा जाता है वो राष्ट्रपिता के उपाधि से सम्मानित किए गये। एक ओर जहाँ देश में लोगों को गाँधी ने रंग भेद से लड़ने का हौसला दिया तो वोहीं राजनीति से हटके देशहित की बात करने का भी फलसफा सिखाया। चंपारण में भी उनके द्रण निश्चय की छाप हर एक को दिखी।
इतिहास के पन्ने पलटने पे पता लगता है की 20 अक्टूबर 1920 को फिर से बापू अमीनाबाद पार्क आए। शहर वासियों को वो यहाँ आकर असहयोग आंदोलन की लॉ जलाए रखने की सलाह दे के गये। उन्होने महिलाओं को जो की मौलवीगंज से यहाँ चहल कदमी करने आती थीं उनको संबोधित करते हुए उनको ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाया और फिर ये जगह आज़ादी के जंग के मंथन के लिए इस्तेमाल होने लगा। गाँधी ने अमीनाबाद में गूंगे नवाब बाघ में भी सभायें की, जहाँ उनके साथ मोहम्मद अली और शौकत अली थे।
वर्ष 1936 में गांधी जी 28 मार्च से 12 अप्रैल सबसे अधिक समय रहे और तमाम आयोजनों में शामिल होकर लोगों को अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने के लिए जागरुक किया था। अमीनाबाद का गंगा प्रसाद हॉल भी आज़ादी की लड़ाई के सभाओं का प्रमुख केन्द्र था। बापू के ही कहने पर झंडे वाला पार्क अमीनाबाद में बनवाया गया था। बापू की याद में राज भवन से जिलाधिकारी के घर के बीच के रास्ते का 70 के दशक में नामकरण MG रोड पड़ गया।
माना जाता है बापू ने जंगे आज़ादी के समय महिलाओं को रोटी सेंकने से पहले चुटकी भर आटा दान करने को कहा स्वतंत्रता सेनानियों के लिए। इतना आटा आया की वो एक स्कूल में रखा गया, जिसे चुटकी भंडार स्कूल कहा जाने लगा। लखनऊ के गोखले मार्ग में आज भी गाँधी की यादें एक बरगद के पेड़ के रूप में जीवित हैं, जिसे उन्होंने ही लगाया था।
यही नही गाँधी जब भी लखनऊ आए वो फरंगी महल में ठहेरते जो की सूफ़ी विद्वान मौलाना अब्दुल बारी का निवास स्थान था जिन्होंने खिलाफत मूव्मेंट में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। मौलाना अब्दुल बारी की आने वाली पीढ़ियों ने गाँधी के हर टेलिग्रॅम को संभाल के रखा। न केवल लखनऊ बल्कि देश भर में जब गाँधी को याद किया जा रहा है तो तहज़ीब और तलफ़्फ़ुज़ के शहर में शायद ये बापू का ही करिश्मा है की कभी भी कोई प्रदर्शन या क्रांति लानी हो तो आज भी GPO के पास गाँधी के प्रतिमा के चरणों में बैठके लोग लोहा गरम करते हैं। शायद इसी लिए देश आज भी कहता है – बन्दे में था दम।