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क्या दिल्ली में लगेगा राष्ट्रपति शासन

सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

नई दिल्ली। जो मजा आपको 70 mm की स्क्रीन पर मूवी देखने आता है आजकल ठीक वैसा ही पोलिटिकल मूवी का मजा देश की राजधानी में चल रहे ड्रामे को देखने में आ रहा है। 21 दिन बीत गए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरिवाल बहुचर्चित तिहाड़ जेल में हैं लेकिन सीएम की कुर्सी के साथ ऐसा फेविकोल का जोड़ लगा कर चिपके हैं कि सारी नैतिकता को ताक पर रख दिए हैं। पेशी पर अदालत आते हैं और और वापस जेल भेज दिए जाते हैं लेकिन इस बीच ये दावा करना नहीं छोड़ते कि कुछ भी कर लो इस्तीफा नहीं दूंगा। ऐसी ही संवैधानिक संकट की स्थिति हाल ही में देश के एक और राज्य में आई थी जब झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया गया था लेकिन उन्होंने कम से कम इतनी नैतिकता तो दिखाई कि गिरफ्तार होने के पहले ससम्मान राजभवन जाकर राज्यपाल को अपना इस्तीफा दे दिया था।

आंदोलनकारियों के जन्नत कहे जाने वाले जंतर मंतर से अपने पोलिटिकल करिअर की शुरुआत करने वाले केजरीवाल ने पोलिटिकल एंट्री तो नैतिकता के सर्वोच्च मानदंडों के साथ की थी लेकिन आज दिल्ली जिन हालातों को देख रहा है वहाँ उच्च तो छोड़िए कोई मानदंड ही नजर नहीं आ रहा है।

दिल्ली के इन हालात में कुछ प्रश्न जरूर उठ रहे हैं

क्या वाकई कोई मुख्यमंत्री जेल से अपने संवैधानिक कार्यों को अंजाम दे सकता है?
क्या देश के सबसे ऐलीट नौकरशाह कहे जाने वाले आईएएस बार बार तिहाड़ जाकर उससे आदेश लेंगे?
क्या तमाम गोपनीय फाइल भी अब तिहाड़ से साइन होंगी?
सबसे बड़ा सवाल जिस तरह अरविन्द की पत्नी सुनीता केजरीवाल तमाम विधायकों के साथ बैठक कर रहीं है और अफसरों को आदेशित कर रहीं हैं वो आखिर कहाँ तक उचित है?
इसलिए अब ये प्रश्न उठने लगा है क्या दिल्ली राष्ट्रपति शासन की तरफ बढ़ चली है?
कभी 70 विधानसभा सदस्यों वाली विधानसभा में 67 सीट जीतने वाले और फिर 63 सीट जीतकर सत्ता में वापस आने वाले केजरीवाल के सामने भी इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति है। अगर वो कुर्सी अपनी पत्नी को सौंपते हैं तो परिवारवाद का आरोप और यदि परिवार से बाहर किसी को सत्ता का सिरमौर बनाते हैं तो कुर्सी वापस पाने का संकट और पार्टी में टूट का खतरा अलग, लेकिन जिस तरह के हालात हैं उनमें खुद AAP नेताओं को राष्ट्रपति शासन का डर सताने लगा है।

अब आम आदमी ने आशंका जताई है तो बीजेपी की तरफ से जवाब आना तो लाजिमी है। भाजपा नेता मनजिनदर सिंह सिरसा ने कहा कि आम आदमी का कोई और नेता सीएम न बन जाए इसलिए केजरीवाल खुद ही चाहते हैं दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लग जाए।

जानिए आखिर क्या होता है राष्ट्रपति शासन और किन परिस्थितियों में लगाया जाता है

संविधान के आर्टिकल 356 के तहत ही किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। राष्ट्रपति शासन दो तरीकों से लगाया जा सकता है। पहला यह कि जब राज्य में किसी भी दल के पास बहुमत ना हो और गठबंधन की सरकार भी ना चल पा रही हो या फिर राज्य की सरकार संविधान के अनुरूप काम नही कर पा रही हो। इसके अलावा राज्य में संवैधानिक तंत्र पूरी तरह से विफल होने की स्थिति में केंद्र सरकार भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकती है।

कैसे लागू होता है राष्ट्रपति शासन?

राष्ट्रपति कैबिनेट की सहमति से किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला करता है। राष्ट्रपति शासन लगने के 2 महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) द्वारा इसका अनुमोदन किया जाना जरूरी है। अगर लोकसभा भंग होती है, तो राज्यसभा में इसका अनुमोदन किया जाता है और फिर लोकसभा गठन होने के एक महीने में भीतर वहां भी अनुमोदन किया जाना जरूरी है। दोनों सदनों द्वारा अनुमोदन करने पर 6 माह तक राष्ट्रपति शासन रहता है। इसे 6-6 महीने करके 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है, लेकिन किसी भी परिस्थिति में 3 साल बाद विधानसभा चुनाव करवाना जरूरी हो जाता है। जिस तरह का बहुमत केजरीवाल सरकार के पास है उसे देखते हुए राजनीतिक नफा नुकसान का आँकलन किया जाए तो केंद्र सरकार के लिए दिल्ली में राष्ट्रपति शासन की डगर इतनी आसान भी नहीं लगती, और कम से कम तब तक तो बिल्कुल नहीं जब तक दिल्ली में चुनाव खत्म नहीं हो जाते।

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