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देश में दुर्गा पूजा के साथ अब ,महिषासुर की पूजा भी

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नई दिल्ली। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में महिषासुर शहादत दिवस मनाए जाने को लेकर मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की दुर्गा और महिषासुर वाली टिप्पणी और संसद में गरमा-गरमी के बीच दलित विद्वानों और जनजातीय जीवनशैली से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि शायद इस टिप्पणी में उन विभिन्न लोक रीति-रिवाजों को नजरअंदाज कर दिया गया, जिनके अनुसार महिषासुर को एक राजा और वंशज के तौर पर पूजा जाता है। उल्लेखनीय है कि स्मृति ने पिछले सप्ताह सदन में जेएनयू के ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक छात्रों’ द्वारा कथित तौर पर महिषासुर शहादत दिवस के कार्यक्रम के आह्वान के लिए बांटा गया पर्चा पढ़कर सुनाया था।

स्मृति जेएनयू परिसर में कथित तौर पर राष्ट्र विरोधी नारे लगने के बाद पुलिस के पहुंचने पर स्पष्टीकरण दे रही थीं। लेकिन इसी संदर्भ में दलित विद्वानों और जनजातीय जीवनशैली से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि स्मृति की टिप्पणी शायद देवी दुर्गा को लेकर पारंपरिक हिंदू मानसिकता से उपजी है, जिसमें महिषासुर को दैत्य माना जाता है। सच्चाई यह है कि पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड समेत पांच राज्यों में फैली कुछ जनजातियां महिषासुर को एक महान राजा मानती हैं और ‘असुर’ जैसी कुछ जनजातियां खुद को उनका वंशज मानती हैं। असुर जनजाति झारखंड के गुमला, लातेहार, लोहरदग्गा और पलामू जिलों में और उत्तरी बंगाल के अलीपुरद्वार जिलों में पाई जाती है।

दलित और जनजातीय समुदायों के कुछ हिस्से इस विषय से जुड़ी समाज की मुख्यधारा की मान्यता को मानने से इनकार करते हैं और उनकी मान्यताएं इसे लेकर बिल्कुल अलग हैं। असुर जनजाति के तौर-तरीकों का अध्ययन कर चुकीं वंदना टेटे के मुताबिक, असुर और सांथल रीति रिवाजों में महिषासुर की पूजा की जाती है। मध्यप्रदेश की कोर्कु जनजाति भी महिषासुर की पूजा करती है। संथाल जनजातियों के लोकगीतों में भी महिषासुर का जिक्र होता है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में महिषासुर की पूजा के लिए एक भव्य मेला आयोजित किया जाता है।

एक संथाल संगठन भारत जकत मांझी मडोवा के प्रमुख नित्यानंद हेमब्रम ने मीडिया को बताया कि समाज की मुख्यधारा में महिषासुर को जिस रूप में देखा जाता है, उनके समुदाय में उसका कड़ा विरोध किया जाता है। मडोवा जनजाति पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम और छत्तीगढ़ में पाई जाती है। हेमब्रम ने कहा, पश्चिम बंगाल के संथालों में महिषासुर को पारंपरिक तौर पर एक वीर के तौर पर देखा जाता है। दुर्गा पूजा में महिषासुर का जिस प्रकार चित्रण किया जाता है, हम उसका विरोध करते रहे हैं। दुर्गा पूजा में महिषासुर को दुर्गा के चरणों में झुके दिखाया जाता है और देवी को उन्हें मारते दिखाया जाता है। यह दुखद है कि महिषासुर को एक दैत्य माना जाता है, जबकि वह एक वीर था जिसने आक्रमणकारी आर्यो के खिलाफ वीरता से लड़ाई लड़ी।

संथाल जनजातियां लंबे समय से महिषासुर को श्रद्धेय मानती रही हैं और पिछले 12 सालों से वे उसी प्रकार महिषासुर की सामाजिक पूजा का आयोजन कर रही हैं, जिस प्रकार समाज की मुख्यधारा में दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है। हेमब्रम ने बताया, काशीपुर गांव में नवमी तिथि पर ऐसी ही एक पूजा का आयोजन किया जाता है। हिंदू धर्म की कथाओं के अनुसार, ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्तियों ने असुर महिषासुर के संहार के लिए देवी दुर्गा को उत्पन्न किया था, जो ब्रह्मा के वरदान से शक्तिशाली होकर आतंक मचा रहा था।

देवी महात्म्य में दुर्गा को एक सिंह पर सवार महिषासुर से लड़ते दिखाया गया है और अंत में असुर राजा ने अपना रूप बदलकर भैंसा (संस्कृत में महिष) कर लिया। इसलिए उसे महिषासुर नाम दिया गया। झारखंड की एक सामाजिक कार्यकर्ता वासवी ने बताया, “झारखंड की असुर जनजातियां खुद को महिषासुर का वंशज और उसे अपना कुलगुरु मानती हैं। अब झारखंड में महिषासुर की पूजा नहीं की जाती, लेकिन उसे आज भी कुलगुरु का दर्जा दिया जाता है।

महिषासुर की पूजा केवल जानजातीय कबीलों तक ही सीमित नहीं है। माना जाता है कि कर्नाटक के मैसूर का नाम भी महिषासुराना ऊरू (महिषासुर का देश) से पड़ा है। स्मृति की टिप्पणी के बाद चामुंडी मंदिर की महिषासुर की प्रतिमा सोशल मीडिया पर छाई रही। यहां तक कि पश्चिम बंगाल में भी जहां दुर्गा पूजा को सबसे बड़े उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, वहां मूर्ति विसर्जन से पूर्व देवी और उनके शेर के साथ महिषासुर को भी ‘पुष्पांजलि’ अर्पित की जाती है।

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