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कवि सम्मेलन से ओपन माइक तक: बदलते समय के साथ बदलता कवि सम्मलेन

 

लखनऊ। एक 4 फीट ऊँचा मंच, मंच पर एक कवि, कवि के पीछे बैठे दूसरे कवि जो अपनी बारी का इंतज़ार करे रहे हैं, लम्बा सा एक माइक, माइक के सामने बैठे इतने लोग कि भीड़ शब्द छोटा है, ‘जलसा’ चल जायेगा। कविता शुरू होती है, “दरवाज़े बंद मिले… धीरे से बोल गई गमले की नागफनी, साथ रहे विषधर पर चन्दन से नहीं बनी, दर्द लूटना चाहा नए-नए द्वन्द मिले… दरवाज़े बंद मिले।” और जलसे से तालियों की सुनामी मंच की ओर कूच करती है।

कुछ ऐसी ही तस्वीर आपके ज़हन में भी खिच जाती होगी जब आप कवि सम्मलेन या के बारे में सोचते होंगे। सब कुछ ठीक था। आयोजकों को भारी मुनाफा होता था, सुनने वालों को जमकर मज़ा आता था, कवियों और शायरों को उनके पैसे और तगड़ी लोकप्रियता मिल जाती थी। फिर कहाँ गायब हो गए वो कवि सम्मलेन? कहाँ चले गए वो कवि और शायर? और कहाँ छिप गई वो जनता?

कोई कहीं नहीं गया, सब यहीं है। आपके आस-पास ही है। बस उनका स्वरुप बदल गया है। अब ये कवि सम्मलेन ‘ओपन माइक’ के नाम से जाने जाते हैं। ये गन्ने के जूस को स्ट्रॉ से पीने जैसा है। नज़र डालते हैं कवि सम्मेलनों के बदलते स्वरुप की यात्रा पर।

पहला स्वरुप- पहला कवि सम्मलेन 1920 में आयोजित हुआ था, जो बड़े स्तर पर सफल हुआ था। इसके बाद कवि सम्मलेन का जैसे चलन शुरू हो गया। आज़ादी के बाद कवि सम्मलेन का स्वरुप बड़ा साधारण था। मंच पर 20 से 30 कवि और एक आयोजक होता था। किसी-किसी मंच पर 8 से 12 कवि भी होते थे। मंच पर दो माईक होते थे। एक पर कवि अपना कविता-पाठ करते थे और दूसरे पर संचालक बैठता था, जो पहले सभी कवियों का परिचय करवाता था और एक-एक कर कविता पढ़ने के लिए बुलाता था।

बुरा दौर- 80 से 90 दशक के बीच में युवाओं के सामने बेरोज़गारी जैसी एक बड़ी समस्या आकर खड़ी हो गई। जिसका असर कवि सम्मेलनों पर भी हुआ और युवा इन आयोजनों से दूर हो गया। इसके बाद इन्टरनेट ने पूरा खेल ही बिगाड़ दिया। कवि सम्मेलनों के साथ-साथ सर्कस, जादू के शो कई तरह की कलाएं हाशिये पर चली गई।

नया दौर- इसके बाद जिसने खेल बिगाड़ा उसी ने बनाया। इस समय के बाद का युवा जो इन्टरनेट पर लगा रहता था उसने अपनी दिलचस्पी कवि सम्मेलनों में भी दिखानी शुरू की। फिर आया यूट्यूब जिस पर लोग कवि सम्मलेन के विडियो अपलोड करते और देखते थे। समय का पहिया घूमा और कवि सम्मेलनों का दौर लौटा। 2004 के बाद कवि सम्मलेन किसी उत्सव की तरह आयोजित किये जाते थे। इस समय के कवि सम्मलेनों का स्वरुप थोडा अलग था। कई आयोजन सिर्फ एक व्यक्ति पर केन्द्रित होते थे, जिन्हें एक ख़ास शो का नाम भी दिया गया। कवि सम्मलेन के पास इतिहास के सबसे ज्यादा श्रोता इस समय थे। आई आई टी, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान भी कवि सम्मेलनों का आयोजन करने लगे।

ओपन माइक:आज का दौर- इसके बाद आया आज का दौर जहां कवि सम्मेलनों की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा। बस उनका स्वरुप बदल गया। मंच बदल गया और परंपरा बदल गई। अब इन आयोजनों में भारी भीड़ तो नहीं आती है पर सुनने वाले सब आते है। इन्हें अब ओपन माइक कहा जाता है। इन ओपन माइक में कोई ऊँचा मंच नहीं होता है। साधारण एक माइक होता है जिस पर लोग अपनी कविता पढ़ते है।

ख़ासियत- सबसे ख़ास बात कि यहाँ लोग कविता, ग़ज़ल, कहानी, किस्सा कुछ भी सुनने लायक सुना सकते हैं। जो लोगों को सुनने के लिए और ज्यादा अपनी ओर खींचता है। इसमें कविता सुनाने के लिए आपको कोई बड़ी पहचान नहीं चाहिए सिर्फ आपको कविता लिखनी आनी चाहिए। पुराने कवि सम्मलेन कम नहीं हुए बस ओपन माइक की शक्ल में बंट गये हैं। इनसे युवाओं को लिखने की प्रेरणा मिलती है और जंग खा चुके जज़्बात किसी पन्ने पर बयां हो जाते हैं।

हिंदी कविताओं का मंच कभी कमज़ोर कवियों से नहीं सजा। मंच के पास हमेशा एक से एक धुरंधर कवि रहे। हरिवंश राय बच्चन, अटल बिहारी वाजपई, गोपाल दस नीरज, कुमार विश्वास जैसे कवियों के बदौलत ही आज हिंदी के कवि झाम के पैसा कमा रहें हैं। ओपन माइक कवि सम्मेलनों को एक नया जीवन दे रहें हैं और नए कवियों को बनाने का काम कर रहें हैं।

कवि सम्मेलनों और हिंदी कविताओं के इस सफ़र में आपको अदीम हाशमी के इस शेर के साथ छोड़ जाते हैं,

“क्यों परखते हो सवालों से जवाबों को ‘अदीम’

होंठ अच्छे हों तो समझो कि सवाल अच्छा है”

रिपोर्ट: योगेश मिश्रा

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BRIJESH SINGH
the authorBRIJESH SINGH