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कच्छ की कला को पाबीबेन ने दिलाई वैश्विक पहचान

नई दिल्ली, 9 अप्रैल (आईएएनएस)| अरब सागर के तट पर बसे गुजरात के कच्छ की पहचान अगर प्राचीन सिंधु सभ्यता को लेकर है, तो आधुनिक कला-संस्कृति, कारीगरी और हुनर भी उसकी पहचान है। बात जब हुनर की आती है तो जेहन में पाबीबेन का नाम आता है, जिन्होंने कच्छ की कला को दुनिया में पहचान दिलाई।

कच्छ के अनजार तालुका की पाबीबेन महज चौथी कक्षा तक पढ़ी हैं। जनजातीय राबारी समुदाय की इस महिला के सामने एक तरफ चुनौतियों का आसमान था, तो दूसरी ओर अपनी कला के हुनर से दुनिया जीत लेने की उमंग भी।

वह आज 20 लाख रुपये सालाना के टर्नओवर वाला व्यवसाय खड़ा कर चुकी हैं और देश ही नहीं, विदेशों में भी अपने हुनर का डंका बजा चुकी हैं। पाबीबेन के जीवन में एक समय ऐसा भी आया, जब उनके पिता के देहांत के बाद उनकी मां के सिर पर अचानक दो बेटियों के परवरिश की जिम्मेदारियां आन पड़ी। मां का बोझ हल्का करने के लिए वह महज एक रुपये में लोगों के घरों में पानी भरने का काम किया करती थीं।

पहले महिला कला उद्यमों में से एक ‘पाबीबेन डॉट कॉम’ की सफल यात्रा शुरू करने वाली पाबीबेन कहती हैं, होश संभालने पर जब मां की जिम्मेदारियों का अहसास हुआ तो उस समय मैं उनका हाथ बंटाने के लिए दूसरों के घरों में लिपाई-पुताई और पानी भरने का काम किया करती थी। उस समय मुझे दूसरों के घरों में एक गैलन पानी भरने के ऐवज में सिर्फ एक रुपया मिलता था। फिर मैंने अपनी मां से अपनी परंपरागत कढ़ाई का काम सीखा और आज मेरा यह काम इतना आगे बढ़ चुका है कि न सिर्फ मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी हुई हूं, बल्कि अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी आर्थिक रूप से संपन्न बनने में मदद करने का प्रयास कर रही हूं।

कच्छ के आदिवासी ढेबरिया राबारी समुदाय में परंपरा रही है कि समुदाय की लड़कियों को अपनी शादी के दहेज में ले जाने वाला पूरा सामान – लहंगे, ब्लाउज, चादरें, सोफा कवर, दरियां, दूल्हे के कपड़े, तोरण आदि खुद अपने हाथों से कढ़ाई करके तैयार करना होता था। लेकिन इस महीन कारीगरी में इतना समय लगता था कि दहेज तैयार करने के चक्कर में उनकी शादियों में देर हो जाती थी। इसे देखते हुए समुदाय के बुजुर्गो ने इस कारीगरी और रिवाज पर रोक लगा दी।

पाबीबेन बताती हैं, समुदाय के इस फैसले से हम ढेबरिया महिलाओं को लगा कि इस प्रकार तो यह कला ही विलुप्त हो जाएगी। समुदाय के नियमों को तोड़े बिना इस कला को बचाने और इसे आगे बढ़ाने के लिए हमने एक नया तरीका खोज निकाला और हाथ की कढ़ाई के स्थान पर रेडीमेड चीजों के इस्तेमाल से मशीन की मदद से खूबसूरत और कलात्मक सामान तैयार करना शुरू किया, जिसे ‘हरी जरी’ का नाम दिया गया।

पाबीबेन महिलाओं के एक संगठन के साथ जुड़ गईं और उन्हें जल्द ही मास्टर कारीगर बना दिया गया। ढेबरिया समुदाय में पहली बार पाबीबेन ने रिबन और लेस वगैरह के खूबसूरत संयोजन का प्रयोग किया, जिसे ‘पाबी जरी’ का नाम दिया गया।

पाबीबेन का हुनर तब परवान चढ़ा, जब उन्होंने अपनी शादी में शामिल हुए कुछ विदेशी मेहमानों को अपने हाथों बना बैग भेंट में दिया। वह बताती हैं, मैं सोच में पड़ गई थी कि अपनी शादी में आए विदेशी मेहमानों को भेंट में क्या दूं, फिर मैंने अपने हाथों का बना बैग उन्हें भेंट किया। उन्हें वह बैग इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे पाबीबैग नाम दे दिया।

इस भेंट से पाबी का हुनर केवल कच्छ या भारत तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उन विदेशियों के जरिए उनके हुनर का जादू विदेशों में भी फैल गया।

पाबीबेन का व्यवसाय आज दुनिया के कई देशों में फैल चुका है और उनके क्लाइंट्स की लिस्ट में नामी गिरामी नाम शामिल हैं, जिनमें ताज ग्रुप ऑफ होटल्स, वस्त्र, देश के कई रिजॉर्ट, म्यूजियम, डिजाइनर आदि शामिल हैं। अमेरिका, जर्मनी, कोस्टा रिका, ब्रिटेन, दुबई जैसे कई देशों में उनके उत्पादों की मांग हैं।

पाबीबेन कहती हैं, मेरे काम को आगे बढ़ाने में मेरे पति लक्ष्मणभाई राबारी ने मेरा बहुत हौसला बढ़ाया। अब मैं चाहती हूं कि मैं अपने गांव की अन्य हुनरमंद युवतियों और महिलाओं को भी आर्थिक रूप से आगे बढ़ने में मदद करूं। आज मेरे काम के साथ मेरे गांव की 50-60 महिलाएं जुड़ चुकी हैं। मेरा मकसद है कि मैं अपने साथ 500 महिलाओं को जोड़ पाऊं।

खास पहचान बना चुके पाबीबैग ‘द अदर एंड ऑफ द लाइन’ और ‘लक बाय चांस’ जैसी हॉलीवुड और बॉलीवुड फिल्मों में भी नजर आ चुके हैं।

अपने खास हुनर और उद्यमिता के जरिए गांव की महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनने में मदद के लिए पाबीबेन को जानकीदेवी बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा हाल ही में उन्हें दिल्ली में स्नाइडर इलेक्ट्रिक द्वारा प्रेरणा अवार्ड से भी नवाजा गया।

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