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स्वाभिमानी आदिवासियों को खरीदा नहीं जा सकता : ज्ञानवती

भोपाल, 2 मार्च (आईएएनएस)| मध्यप्रदेश के उमरिया जिले की जिला पंचायत अध्यक्ष ज्ञानवती सिंह का कहना है कि आदिवासी स्वाभिमानी होते हैं, उनका दिल प्रेम-मुहब्बत से जीता जा सकता है, मगर खरीदा नहीं जा सकता। यह बात कोलारस और मुंगावली के मतदाताओं ने बता दी है। 

ज्ञानवती ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, आदिवासी हमेशा छले गए हैं, उन्हें सब्जी-बाग दिखाए गए, मगर उनकी हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया। कहने के लिए तो एक पूरा विभाग ही आदिवासियों के लिए है, लेकिन यह विभाग नेताओं व अफसरों के लिए सिर्फ चारागाह बनकर रह गया है। राज्य का आदिवासी अब भी अपने हक की जमीन पाने की लड़ाई लड़ रहा है। उसे जंगल से बेदखल किया जा रहा है।

राज्य सरकार ने शिवपुरी के कोलारस और अशोकनगर के मुंगावली विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव से पहले सहरिया, बैगा और भारिया आदिवासियों को कुपोषण से मुक्त कराने के लिए प्रति माह 1000 रुपये देने का ऐलान किया था। चुनाव से पहले यह राशि उन्हें मिलने भी लगी। कोलारस में जहां 35,000 आदिवासी मतदाता हैं, वहीं मुंगावली में यह आंकड़ा 20,000 के आसपास है।

ज्ञानवती बगैर किसी दल का झंडा थामे आदिवासियों के हक के लिए संघर्षरत हैं। उनका कहना है कि वे स्वयं गोंड आदिवासी हैं। तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद आदिवासियों की स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। उन्हें तो सिर्फ योजनाएं गिनाई जाती हैं, चुनाव आते हैं तो लॉलीपॉप थमा दिया जाता है, मगर हर आदिवासी यह जान चुका है कि उसके साथ सिर्फ छल हो रहा है। उसके हक का पैसा नेताओं और अफसरों की जेब में जा रहा है। लिहाजा, उसने राज्य सरकार को संदेश दे दिया है कि उसे हर माह 1000 रुपये देकर खरीदा नहीं जा सकता।

एक सवाल के जवाब में ज्ञानवती ने कहा, सच्चाई यह है कि आदिवासियों को जंगलों से खदेड़ा जा रहा है, उनके पुनर्वास पर किसी का ध्यान नहीं है। प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजनाएं हैं, मगर कितने आदिवासियों के मकान बने, यह भी तो देखिए।

उन्होंने कहा कि आदिवासी अपना हक चाहता है, मगर सरकार और नौकरशाह उसे देना नहीं चाहते। आदिवासी आवाज उठाता है तो उसे दबा दिया जाता है। आदिवासियों को कमजोर, लाचार समझने वालों को उसने उपचुनाव में अपना संदेश दे दिया है।

आदिवासियों के नाम पर राजनीति करने वालों को आड़े हाथ लेते हुए ज्ञानवती ने कहा, कई लोग आदिवासियों के ठेकेदार बन बैठे हैं, वे राजनीतिक दल भी बनाए हुए हैं। चुनाव के समय सत्ताधारी दल से समझौता कर अपना स्वार्थ पूरा कर लेते हैं। ऐसे लोगों को बेनकाब करने का वक्त आ गया है। राज्य में इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव में आदिवासियों की बड़ी भूमिका होगी, इसे कोई नकार नहीं सकता।

उन्होंने कहा कि आमतौर पर राजनेताओं की सोच रही है कि आदिवासी को कुछ पैसा और शराब दे दो, उसका वोट मिल जाएगा। मगर सच तो यह है कि आदिवासी समुदाय अब शराब से दूरी बनाने लगा है। उनके बीच जगह-जगह नशामुक्ति अभियान चल रहे हैं। पंचायतों में शराब छोड़ने का संकल्प लिया जा रहा है। आदिवासी बदल रहे हैं, मगर सत्ता के नशे में चूर नेता अपनी सोच नहीं बदल रहे हैं। आने वाले समय में आदिवासियों को खरीदने की धारणा खत्म होगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

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