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तालिबान में घूमता दिखा खलील अल हक्कानी, भारत के लिए हो सकती है बुरी खबर

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अफगानिस्तान की जमीन पर दशकों से खूनी खेल खेलने वाले तालिबान ने शांति की दुहाई देना तो शुरू कर दिया लेकिन उसकी हरकतों से नहीं लग रहा कि वह शांति कायम करने की राह पर है। इस कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन ने राजधानी काबुल की कमान हक्कानी नेटवर्क को सौंप दी है जिसकी नजदीकियां अल-कायदा जैसे आतंकी संगठनों से हैं और खुद कई घातक हमलों को अंजाम दे चुका है। इस कदम से एक बार फिर साफ हो गया है कि अफगानिस्तान की जमीन पर आतंकी संगठनों को ना पलने देने का तालिबान का दावा तो दिखावा है ही, पाकिस्तान का भी इसमें पूरा दखल है।

हक्कानी नेटवर्क की शुरुआत अफगानिस्तान के जादरान पश्तून समुदाय से आने वाले जलालुद्दीन हक्कानी ने की थी। हक्कानी की पहचान पहली बार 1980 के दशक में मुजाहिद्दीनों के सोवियत सेना के खिलाफ लड़े जा रहे युद्ध के दौरान हुई थी। जलालुद्दीन तब अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के संपर्क में आया था। यहीं से हक्कानी नेटवर्क की शुरुआत हुई। बताया जाता है कि 1979 में सोवियत सेना के जाने के बाद इस संगठन ने अफगानिस्तान में गृहयुद्ध भी लड़ा।

हक्कानी नेटवर्क हमेशा से तालिबान के संपर्क में नहीं रहा, लेकिन कहा जाता है कि 1995 वह दौर था, जब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने पहली बार अफगानिस्तान में दो आतंकी संगठनों को साथ लाने में भूमिका निभाई। इसी के बाद से हक्कानी नेटवर्क और तालिबान साथ बने हुए हैं। इस बीच, यह समझना अहम है कि आखिर पाकिस्तान ने एक पड़ोसी देश में दो आतंकी संगठनों को क्यों मिलाया और हक्कानी नेटवर्क के उससे क्या संबंध हैं?

हक्कानी नेटवर्क के संस्थापक जलालुद्दीन ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तालीम ली। हक्कानी शब्द भी पाकिस्तान की दारुल-उलूम हक्कानिया मदरसा से आया, जहां उसने पढ़ाई की। अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ जंग हो या गृहयुद्ध, हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान से लगातार मदद मिलती रही। कुछ खाड़ी देश भी इस क्रूर संगठन की फंडिंग में शामिल रहे। इसका बेस पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान स्थित मिरानशाह शहर में है। बताया जाता है कि सोवियत सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध के दौरान ही हक्कानी ने अल-कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन के साथ करीबी रिश्ते बनाने में कामयाबी हासिल की।

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