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भारत कई आर्थिक संकेतकों में बांग्लादेश से भी काफी पीछे

नई दिल्ली, 15 जुलाई (आईएएनएस)| दुनिया की सर्वाधिक तीव्र दर से आर्थिक विकास वाली भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के कई संकेतकों में बांग्लादेश से भी काफी पीछे है।

मसलन, महिला कामगार भागीदारी दर 2010 में भारत 29 फीसदी थी तो बांग्लादेश में 57 फीसदी। यह चौंकाने वाली बात नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अर्मत्य सेन और ज्यां द्रेंज ने अपनी किताब ‘भारत और उसके विरोधाभास’ में बताई है।

मूल अंग्रेजी कृति ‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’ का यह हिंदी रूपांतर है, जिसका प्रकाशन इसी साल हुआ है। मूल पुस्तक 2013 में ही प्रकाशित हुई थी।

लेखक द्वय ने किताब में इस तल्ख सच्चाई को रेखांकित किया है कि लाभ अर्जित करने के मकसद से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो निजी पूंजी निवेश होता है, उससे तब्दीली तो आती है, मगर उसका लाभ सबको नहीं मिल पाता, क्योंकि वह निवेश जनहित के उद्देश्य से कम, लाभ कमाने के लिए ज्यादा होता है।

किताब में तीव्र आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर भारत की वास्तविक तस्वीर पेश की गई है, जिसमें उपलब्धियों के साथ-साथ कई विफलताएं भी शामिल हैं, जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

लेखक द्वय ने यह बताने का प्रयास किया है कि आर्थिक विकास का फायदा अगर समाज में कमजोर तबकों और वंचितों को नहीं मिल रहा है तो फिर देश के आर्थिक विकास के कोई मायने नहीं हैं। इनके कहने का अभिप्राय यह है कि आर्थिक विकास के लाभ का पुनर्वितरण सुविधाओं से महरूम लोगों के बीच होना जरूरी है।

दोनों अर्थशास्त्री आर्थिक विकास के लिए सार्वजनिक व्यय को जरूरी मानते हैं। इनके मुताबिक शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सृजन के लिए सार्वजनिक व्यय जरूरी है, जिससे आर्थिक विकास को भी रफ्तार मिलती है।

किताब में मीडिया की जवाबदेही पर भी सवाल किया गया है। लेखक द्वय के अनुसार, भारतीय मीडिया रूपहले पर्दे, खान-पान और जीवन पद्धति और खेल जैसे मनोरंजन की खबरों में ज्यादा अभिरुचि दिखाता है, जबकि विकास के मसलों में उसकी दिलचस्पी कम देखी गई है।

इन्होंने किताब में योजना आयोग की एक रिपोर्ट का जिक्र किया है, जिसमें आयोग ने कहा है कि 2011-12 में देश की 1.2 अरब आबादी का एक चौथाई से कम निर्धनता रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 1990 से 2010 के दौरान दुनियाभर में निर्धनता में कमी आई, जो आर्थिक विकास का परिणाम है। बाद के वर्षो में दुनिया के विकासशील देशों में एक चौथाई आबादी नितांत गरीबी का जीवन बसर करने को मजबूर थी और भारत में 40 फीसदी से ज्यादा लोग इस हालत में थे।

आर्थिक उदारीकरण के कारण भारत में 1990 के बाद गरीबी में कमी जरूर आई लेकिन इसमें सत्ता में बैठे लोगों की कोई कृपा नहीं थी। जिन लोगों ने उदारीकरण का विरोध किया वे 1991 के पूर्व की नीतियों में विश्वास करते थे।

लेखकों ने किताब की भूमिका में हालिया घटनाओं का भी जिक्र किया है, जिनमें 8 नवंबर, 2016 को भारत सरकार द्वारा की गई नोटबंदी की भर्सना की गई है। लेखक द्वय ने सरकार ने बेरोजगारों को रोजगार देने के बजाय अचानक नोटबंदी कर 86 फीसदी नकदी को गैरकानूनी घोषित कर दिया।

किताब में तुलनात्मक आंकड़े भारतीय अर्थव्यवस्था को बेहतर ढंग से समझने में सहायक हैं। हालांकि अनूदित रचना होने के कारण संप्रेषणीयता का प्रवाह कहीं-कहीं अवरुद्ध होता है। इसमें कहीं दो राय नहीं कि अनुवादक ने मूल पाठ और लक्षित पाठ के बीच तारतम्य बनाने की पूरी चेष्टा की है। पुस्तक पठनीय है, खासतौर से आंकड़ों और तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए लाभकारी हो सकता है।

किताब : भारत और उसके विरोधाभास

लेखक : अर्मत्य सेन, ज्यां द्रेंज

अनुवादक : अशोक कुमार

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

मूल्य : 399 रुपये

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