कश्मीर की समस्या सदियों पुरानी है जब पकिस्तान दुनिया के नक़्शे में नहीं था। कश्मीर पर डोगरा शासन अपनी चरम सीमा पर था, भयानक उपेक्षा और शोषण से पीड़ित था। 30 का दशक आते-आते लोग सड़कों पर आन्दोलन करने लगे। इसी आन्दोलन के दौरान आग में घी डालने का काम उस वक़्त हुआ जब 29 अप्रैल 1931 मुसलमान ईद की नमाज़ के लिए जुटे, और ये कोई पहली बार नहीं था, हर साल की तरह ईद की नमाज़ एक मैदान में हो रही थी और इस बार भी वही होना था।
नमाज़ शुरू होने वाली ही थी तभी खेम चंद नामक एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। मुसलमानों ने जब इस बात का विरोध किया तो डोगरा सरकार ने आन्दोलन करने वाले कश्मीरियों को जेल भेज दिया। 13 जुलाई 1931 को मुसलमानों ने जेल के बाहर इसका विरोध किया। सेशन जज ने जब भीड़ को जाने के लिए कहा तो लोगों ने नमाज़ के बाद जाने की बात कही क्यूंकि वो दिन जुम्मे का था। ख्वाज़ा अब्दुल ख़ालिक शोरा नाम के एक शख़्स ने जैसे ही नमाज़ पढ़नी शुरू की, पुलिस ने पाँच लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। इस बात का एक नौजवान ने विरोध किया, जैसे ही उसने अज़ान देना शरू किया सिपाहियों ने उसे गोली मार दी जिससे उनकी आजान अधूरी रह गयी, तभी दूसरा नौजवान उठा और अज़ान को पूरा करने में लग गया, सिपाहियों ने उसे भी गोली मरकर मौत के घाट उतार दिया।
इस तरह से लोग आजान के लिए उठते रहे और सिपाहियों की गोली खाते रहे, एक अजान को पूरा करने में कश्मीर के 22 मुस्लिम नौजवानों ने अपनी शाहदत दी। इसलिए इस्लाम की दुनिया में यह सबसे वाहिद आजान है। इस घटना के बाद ही कश्मीर में पत्थरबाज़ी की घटनाए शुरु हुई थी जो आज तक जारी है। 13 जुलाई को इन्ही लोगों के याद में कश्मीर में शहादत दिवस (Kashmir Martyrs’ Day) मनाया जाता है।