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‘छठ स्वच्छता का राष्ट्रीय पर्व घोषित हो’

नई दिल्ली, 22 अक्टूबर (आईएएनएस)| प्रकृति-पूजोपासना का महापर्व छठ बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड में मनाया जाने वाला एक लोक-आस्था का त्योहार है, मगर इस पर्व को मनाने के पीछे जो दर्शन है, वह विश्वव्यापी है।

शायद यही कारण है कि प्रवासी पूर्वाचलियों के इस पर्व के प्रति लोगों में आस्था आज न सिर्फ देश के अन्य भू-भागों में, बल्कि विदेशों में भी देखी जाती है।

दरअसल, छठ पर्यावरण संरक्षण, रोग-निवारण व अनुशासन का पर्व है और इसका उल्लेख आदिग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है।

दीपावली पर लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, तो छठ पर नदी-तालाब, पोखरा आदि जलाशयों की सफाई करते हैं। जलाशयों की सफाई की यह परंपरा मगध, मिथिला और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्राचीन काल से चली आ रही है। दीपावली के अगले दिन से ही लोग इस कार्य में जुट जाते हैं, क्योंकि बरसात के बाद जलाशयों और उसके आसपास कीड़े-मकोड़े अपना डेरा जमा लेते हैं, जिसके कारण बीमारियां फैलती हैं।

इस तरह छठ जलाशयों की सफाई का भी पर्व है। आज स्वच्छ भारत अभियान और नमामि गंगे योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मनपसंद परियोजनाओं में शुमार हैं। पिछले तीन साल से मोदी सरकार स्वच्छता अभियान और गंगा की सफाई को लेकर तेज मुहिम चला रही है। इन दोनों कार्यक्रमों का लोक-आस्था का पर्व छठ से सैद्धांतिक व व्यावहारिक ताल्लुकात हैं।

सैद्धांतिक रूप से मोदी सरकार का गंगा सफाई योजना का जो मकसद है, उसे बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड में लोग सदियों से समझते हैं और छठ से पहले जलाशयों की सफाई करते हैं।

व्यावहारिक पक्ष की बात करें तो प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत की जो परिकल्पना की है, वह जनभागीदारी के बिना संभव नहीं है। नीति व नियमों से किसी अभियान में लोगों को जोड़ना उतना आसान नहीं होता है, जितना कि आस्था व श्रद्धा से। खासतौर से जिस देश में धर्म लोगों की जीवन-पद्धति हो, वहां धार्मिक विश्वास का विशेष महत्व होता है।

छठ पूजा में सूर्य की उपासना की जाती है। साथी ही, कठिन व्रत व नियमों का पालन किया जाता है। इस तरह यह प्रकृति पूजा के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और लोकाचार में अनुशासन का भी पर्व है। कार्तिक शुल्क पक्ष की षष्ठी व सप्तमी को दो दिन मनाए जाने वाले इस त्योहार के लिए व्रती महिला चतुर्थी तिथि से ही शुद्धि के विशेष नियमों का पालन करती है। पंचमी को खरना व षष्ठी को सांध्यअघ्र्य और सप्तमी को प्रात:अघ्र्य देकर पूजोपासना का समापन होता है।

छठ में कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य का ध्यान करने की प्रथा है। जल-चिकित्सा में यह ‘कटिस्नान’ कहलाता है। इससे शरीर के कई रोगों का निवारण होता है। नदी-तालाब व अन्य जलाशयों के जल में देर तक खड़े रहने से कुष्टरोग समेत कई चर्मरोगों का भी उपचार हो जाता है।

हम जानते हैं कि धरती पर वनस्पति व जीव-जंतुओं को सूर्य से ही ऊर्जा मिलती है। सूर्य की किरणों से ही विटामिन-डी मिलती है। पश्चिम के देशों में लोगों को सूर्य की रोशनी पर्याप्त नहीं मिलने से उनमें विटामिन-डी की कमी पाई जाती है और उन्हें इस विटामिन की कमी से होने वाले रोग का खतरा बना रहता है। इसलिए रोग से बचने के लिए लोग दवाओं से विटामिन-डी की अपनी जरूरत पूरी करते हैं।

भारत की अक्षांशीय स्थिति ऐसी है कि देश के हर भूभाग में सूर्य का भरपूर प्रकाश मिलता है। सूर्य को इसलिए भी रोगनाशक कहा जाता है, क्योंकि जिस सूर्य की किरणें जिस घर में सीधी पहुंचती हैं, उस घर में कीड़े-मकोड़ों का वास नहीं होता। यही कारण है कि यहां लोग पूर्वाभिमुख घर बनाना पसंद करते हैं।

छठ का त्योहार जाड़े की शुरुआत से पहले मनाया जाता है। जाहिर है, जाड़े में सूर्योष्मा का महत्व बढ़ जाता है। इसलिए सूर्य की उपासना कर लोग उनसे शीत ऋतु में कड़ाके की ठंड से बचाने का निवेदन करते हैं। वहीं, यह जल संरक्षण का भी पर्व है।

प्रकृति पूजा हिंदू धर्म की संस्कृति है। इसमें यह परंपरा रही है कि जिस जीव से या जीवेतर वस्तु से हम उपकृत होते हैं, उसके प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं। इसीलिए हमारे यहां नदी, तालाब, कुआं, वृक्ष आदि की पूजा की परंपरा है। ऋग्वेद में भी सूर्य, नदी और पृथ्वी को देवी-देवताओं की श्रेणी में रखा गया है।

हिंदू धर्म अपने आप में एक दर्शन है, जो हमें जीवन-शैली व जीना सिखलाता है। छठ आस्था का महापर्व होने के साथ-साथ जीवन-पद्धति की सीख देने वाला त्योहार है, जिसमें साफ-सफाई, शुद्धि व पवित्रता का विशेष महत्व होता है। इसलिए लेखक का मानना है कि लोक-आस्था के इस महापर्व को स्वच्छता का राष्ट्रीय त्योहार घोषित किया जाना चाहिए।

साथ ही, ऊर्जा संरक्षण, जल संरक्षण, रोग-निवारण व अनुशासन के इस पर्व को पूरे भारत में मनाया जाना चाहिए। इससे जनकल्याण के कार्यो के प्रति लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी और स्वच्छ भारत की परिकल्पना को साकार करने में मदद मिलेगी।

छठ को राष्ट्रीय पर्व घोषित किए जाने से देश के कोने-कोने में फैले जलाशयों की सफाई के प्रति लोगों में जागरूकता आएगी और इससे जल-संरक्षण अभियान को भी गति मिलेगी। लोक-आस्था के इस पर्व के महत्व को स्वीकार करते हुए दिल्ली सरकार ने अपने बजट में छठ-पूजा के लिए विशेष व्यवस्था की है।

दिल्ली सरकार की ओर से छठ-पूजा के लिए तकरीबन 600 घाटों व पूजा-स्थलों की व्यवस्था की गई है। हालांकि इसके राजनीतिक मायने भी निकाले जाते हैं, क्योंकि दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में करीब 50 सीटें ऐसी हैं, जहां पूर्वाचलियों की उपेक्षा कर कोई राजनीतिक दल दिल्ली की सत्ता पर काबिज नहीं हो सकता।

भले ही पूर्वाचलियों की भावनाओं का सम्मान करने की बात हो, मगर छठ पूजा को लेकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निवासियों में जिस प्रकार की आस्था देखी जा रही है, वह पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता का द्योतक है। लिहाजा, भारत सरकार को इसे अपने संज्ञान में लेना चाहिए।

दिल्ली के अलावा, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद समेत देश के विभिन्न महानगरों में पूर्वाचली प्रवासी धूमधाम से छठ मनाते हैं। यही नहीं, मॉरीशस, फिजी व अमेरिका समेत कई देशों में भी पूर्वाचली भारतीय प्रवासी छठ मनाने लगे हैं, जिसे देखकर विदेशी लोगों में इस पर्व के प्रति आकर्षण बढ़ा है।

हाल के दिनों में ‘राइट टू ब्रीथ’ के तहत सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दिल्ली में प्रदूषण का स्तर कम करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। जैसे- मैन्युफैक्चरिंग युनिट्स को दिल्ली से बाहर किए गए हैं। दिल्ली में ईंट-भट्ठा लगाने पर रोक है। इस बार दीपावली पर पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी गई थी।

ये सब तो रोक लगाने वाली बातें हुईं, लेकिन प्रकृति पूजोपासना के पर्व छठ को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ते हुए अगर केंद्र व राज्य सरकारों की ओर से और श्रद्धालुओं की मदद से देश के विकास में इस पर्व का योगदान सुनिश्चित करना एक सकारात्मक पहल है।

हर साल की भांति इस बार भी दिल्ली-एनसीआर में पूर्वाचली लोक आस्था का पर्व छठ धूमधाम से मनाने के लिए तैयारियां शुरू हो गई हैं। राजनीतिक दलों के नेता व जनसेवकों की शुभकामनाओं की तख्तियां गली-चौराहों पर टंग चुकी हैं। जाहिर है, इनकी इस दिलचस्पी के पीछे वोट बैंक की राजनीति एकमात्र मकसद है। लेकिन पर्यावरण के मुद्दे को ध्यान में रखकर अगर छठ पूजा के महत्व को देखा जाए, तो मकसद व्यापक होगा और इसमें आमलोगों की दिलचस्पी व भागीदारी बढ़ेगी।

(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद् व मिथिलालोक फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)

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